सोच का दायरा
ऐसा कहा जाता है कि मनुष्य को अपनी सोच का दायरा बढ़ाना चाहिए जिससे विचारों में एक दूर दृष्टि आये और उनके फैसले में एक परिपक्वता आए | कई बार यह दायरा बढ़ाने से व्यक्ति की किसी मामले में पुरानी सोच भी बदल जाती है और वह नई सोच और विचारों को भी अपनाता है पर इसमें कई सवाल भी है |
पहला - क्या सोच का दायरा बढ़ाने में और सोचने में कुछ फ़र्क भी है ? एक व्यक्ति जो सिर्फ सोचता ही रहता है वह आज एक करोड़ कमाने की सोच रहा है, फिर कल सोचता है 1 से क्या होगा 10 करोड़ तो होना ही चाहिए | फिर अगले दिन 10 से क्या होगा 50 तो होने ही चाहिए.... क्या यह व्यक्ति अपनी सोच का दायरा नहीं बढ़ा रहा है?
दूसरा - सोच का दायरा बढ़ाने से कभी कभी ये हमारी मान्यताओं, संस्कृति और समाज में भी परिवर्तन की कोशिश करने लगता है | पर क्या हम इसके लिए राजी हो पाएंगे ?
तीसरा - जब कभी किसी की आलोचना की जाती है कि आपकी सोच का दायरा बहुत छोटा है तो इससे व्यक्ति की कमियों जैसे क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह आदि का पता चलता है |
अंत में यह लगता है सोच का दायरा इंसान के व्यक्तित्व को निखारने का काम करता है |
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